मनोज कुमार पाण्डे – सम्पादक “खबर सच है”
आजाद भारत के 74 वर्ष बाद हमारे देश की आधी से भी ज्यादा आबादी आज भी वैसे ही सोचने लगती हैं जैसा कि सियासी दल हमसे उम्मीद करते हैं। कभी धर्म-सम्प्रदाय तो कभी जाती-प्रन्थ के नाम पर जनता को सियासी मानसिकता अपना गुलाम बना कर। गुलामी से आजादी की तरफ बड़े सोचा अब आजाद जियेंगे, लेकिन फासीवादी राजनीती हमें फिर उसी गुलामी में ले गई। हम आजाद हुए पर सियासत के गुलाम बन कर। हमें आजादी मिली तो सत्ता नवीसी की गुलामी कर के। कांग्रेसी मानसिकता ने कभी निचले तबके को साक्षर होकर बढ़ने का अवसर नहीं दिया तो हिन्दू वादी भाजपाई सरकार अवसरवादी बन कर धर्म की राजनीति पर जनतंत्र का इस्तेमाल करने लगी। लम्बे कांग्रेसी शासनकाल में आरोप लगे सरकार जनता को लुटती रही लिहाजा परिवर्तन की आवश्यकता हैं। समय बदला और शासन भी बदला। उम्मीद जगी अब उचित होगा। लेकिन सत्ता बदली और जनता को गुड्स एण्ड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के स्वरूप में नये फ्लेवर का लॉलीपॉप चूसने को दे दिया गया। उम्मीद की नई कृतिम किरणें उगाई गई कि इसके लागू होते ही विकास दर में वृद्दि के साथ ही जनता को महंगाई व भ्रष्टाचार से भी राहत मिलेगी। नीति निर्धारण यूं तो सत्ता परिवर्तन के साथ होता ही रहा हैं, पर उससे पूर्व यह भी तो सुनिश्चित होना चाहिए कि इसमें जनता का हित कितना सुरक्षित हैं। अब किसानों से वार्ता किये बिना अध्यादेश लाना और तैयारी करना कि किसी कोस्चनाजर के चोर रास्ते से बिल लाने की तैयारी कृषि कानून बनाकर किसानों का शोषण भी इसी ओर इशारा है। हालांकि खेती अब किसानों के लिए पहले की तरह मुनाफे का सौदा नहीं रह गई है, और यही वजह है कि कर्ज माफी के बाद भी किसान कर्जदार ही बना हुआ है।खेती अब न तो किसान को लाभ दे रही और न उसे भविष्य के प्रति आश्वस्त कर रही है। वर्ष 2003 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ ) के 59 वें दौर में यह बात सामने आई कि खेती मुनाफे का सौदा नहीं रह गई और विकल्प मिलने की स्थिति में 40 फीसदी किसान तुरन्त खेती छोड़ने के इच्छुक है। वर्ष 2003 से 2013 में किसानों के हालात और बिगड़े और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी द्वारा कराये सर्वे के अनुसार 61 फीसदी किसान नौकरी मिलने की स्थिति में खेती छोड़ने के लिए तैयार दिखे। बहरहाल किसानों के हित के बजाय कॉरपोरेट के सपोर्ट में यदि सरकार नीति निर्धारण कर कानून बनाती है जिस कारण किसानों के हालात नहीं सुधरे और उनकी खेती से मोहभंग की स्थिति बरकरार रही तो खेती का क्या होगा एक भारी संकट की ओर इशारा करता है।