देव – दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी हम प्रेम, एकता, परोपकार, सेवा धर्म के अनुसार कार्य नहीं कर रहे है। जो आया है उसे एक दिन जाना है लेकिन मनुष्यता, अज्ञानता व सत्संग के अभाव में ‘जाना’ भूल जाता है। आत्मा तो अजर – अमर है। भक्ति मार्ग पर चलने वाला मनुष्य कभी मरता नहीं। सत्संग का सही सेवन करने वाला व उसी के अनुसार अपने जीवन को ढालने वालों को कोई नही मार सकता। भक्ति मार्ग पर चलने वाला कुछ ऐसा कर जाता है कि वह कभी नही मरता। सत्संग कहता है कि भाग्यहीन है वह ब्यक्ति जो मरते समय कुछ साथ नहीं ले जाता हैं। गुरु -मत, सन्त – मत, शास्त्र -मत के अनुसार जीवन ढालने वाला अपने साथ कुछ ले जाता है, ऐसा ब्यक्ति अपने साथ परोपकार ले जाता है।
मानव की पहचान प्यार, सदभाव, परोपकार, शांति, गिरतों को उठा गले लगाना आदि है। अपनी इस पहचान को खोने वाला मानव पशु तुल्य है।
संतों, महापुरुषों, गुरुजनों की सच्ची व सबसे बड़ी सेवा यह नहीं कि उन्हें धन, पुष्पाहार अर्पित कर आरती उतारें, उनकी सच्ची व सबसे बड़ी सेवा तो उनके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने की है। वर – वधु जो एक दूसरे को पुष्पमाला (वरमाला) अर्पित करते है, उसके पीछे यही भाव रहता है कि वर (पति) यह हार स्वीकार करे कि जीवन में छोटी – छोटी बातों को मान – मर्यादा व प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर परिवार में अशांति पैदा न होने दें। वधु (पत्नी) यह हार स्वीकार करे कि एक- एक पुष्प को पिरोकर बने सम्बन्धो के हार को बिखरने न दें। अर्थात परिवार में विघटन की बात न करें। जीतने वाले को हार इसलिए पहनाया जाता है कि वह जीतने के बाद पद का दुरुपयोग व घमण्ड न करें, नहीं तो जीत के बाद हार तैयार है।
गुरुजनों, संतो, महापुरुषों को पहनाये जाने वाले हार का आध्यात्मिक अर्थ है। उसमें हार पहनाने वाला ‘सुमन’ अर्थात अच्छा मन अर्पित करता है और कहता है – हे गुरुदेव! (सुमन) अच्छा मन तो है नहीं, मन प्रदूषित है, इस पुष्पाहार के माध्यम से अपना जीवन अर्पित कर रहा हूँ। आप ही कृपा करके इसे सुन्दर, पावन व सुभग बना दें।
आज के वैज्ञानिक तो तरह-तरह के प्रदूषणो के बारे में चिंतित है, लेकिन संत, महापुरुष, विद्वान व वैचारिक ब्यक्ति सांस्कृतिक प्रदूषण को लेकर चिंतित है।
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