विकास के मद्देनजर मानवीय मूल्यों की उपेक्षा अनुचित।

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मनोज कुमार पाण्डे (सम्पादक) “खबर सच है”      

मानवीय साहसिकता और सामाजिकता का तकाजा है कि जहां भी विभाजन की नीति दिखे, वहां उसके निराकरण का प्रयत्न किया जाए। सोचें कि आखिर ये स्थिति आई क्यों? यदि सीधे-टकराने की सामर्थ्य अथवा स्थिति न हो तो कम से कम असहयोग एवं विरोध की दृष्टि से जितना कुछ बन पड़े उतना तो करना ही चाहिए। कई दशकों से एक स्थान पर अपना गुजर-बसर कर रही जनता-जनार्दन को यदि एकाएक बेघर करने की कार्यवाही की जाए तो स्वभाविक ही है कि टकराव की स्थिति तो पैदा होगी ही, फिर बेशक उस स्थान को खाली कराने के पीछे विकास की अवधारणा ही क्यों न हो। हालांकि सच तो यह भी है भीड़ के रूप में किसी समुदाय विशेष द्वारा एक नियत स्थान पर डेरा डालना बिना प्रशासनिक एवं राजनीतिक संरक्षण के संभव नहीं, और फिर सम्पूर्ण विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का पाठ सिखाने वाले भारत देश में आज जिस विकास की शर्त पर मानवीय मूल्यों की उपेक्षा की जा रही हो, गरीबों को रोटी-कपड़ा और मकान से वंचित कर भूक और बीमारी से मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा हो, तो वहां ऐसी स्थिति का उतपन्न होना कोई नई बात भी तो नहीं।  

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ब्यक्तियों अथवा समूह के रूप में मानव के तीन मुख्य तथा अंर्तसम्बन्धित लक्ष्य रहे हैं- जीवन का अस्तित्व, भरण-पोषण व सुरक्षा। ये वो अधिकार है जो मानव को जन्मजात रूप से प्राप्त होते हैं, जिन्हें संविधान एवं कानून में सम्मिलित किया जाना आवश्यकीय है। लेकिन क्या सरकार इसका प्राथमिकता से पालन कर पा रही है? अब यदि विकास के मद्देनजर अथवा न्यायपालिका के आदेशानुसार कहीं भी किसी भी जगह किसी भी वर्ग विशेष अथवा समुदाय को एक स्थान से निष्कासित किया जाता हो तो क्या राज्य सरकार का यह दायित्व नहीं कि पहले उनके पुर्नस्थापन की ब्यवस्था की जाए?

कई दशकों से उत्तराखंड राज्य में उधमसिंह नगर जिले के नगला पंतनगर क्षेत्र में निवास कर रहे लगभग 15 सौ परिवारों को बगैर किसी वैकल्पिक ब्यवस्था के बेघर करना भी सरकारी ब्यवस्था का निर्लज उदाहरण है। हालांकि यह कोई पहला नहीं इससे पूर्व भी ऐसे कई मामले प्रदेश में मानवीय मूल्यों का उपहास उड़ाते दिखे है।

बहरहाल, विकास के बहाने अतिक्रमण का लेबल लगाकर मानव जाति के जन्मजात अधिकार रोटी-कपड़ा और मकान से उसे वंचित करने की बजाय एक ऐसी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का निर्माण करने की आवश्यकता हैं, जिसके चलते भविष्य में विघटन और टकराव की स्थिति को टाला जा सके। और फिर विकास का ढिंढोरा पीटने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास की नकेल मानव जाति के हाथों में टिकी है। यदि इसे थामने वाले हाथ ही नाकाम हो जाएं तो विकास के सपने वास्तविकता से मीलों दूर ही रह जायेंगे। ऐसा कहकर हमारा मकसद किसी पर आरोप लगाना कतई नहीं है, हां लेकिन हमारा आदर्श है सच्ची बात कहना, जिसे कहने में हमें कोई परहेज नहीं।

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