प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल खबर सच है संवाददाता
क्रांतिवीर दिनेश गुप्त का जन्म छह सितम्बर, 1911 को पूर्वी सिमलिया (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। आगे चलकर वह भारत की स्वतंत्रता के समर में कूद गया। उसके साथियों में सुधीर गुप्त एवं विनय बोस प्रमुख थे। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से तोड़ने के लिए बहुत यातनाएं दी जाती थीं। कोलकाता जेल भी इसकी अपवाद नहीं थी। वहां का जेल महानिरीक्षक कर्नल एन.एस.सिम्पसन बहुत क्रूर व्यक्ति था। अतः क्रांतिदल ने उसे मारने का निर्णय किया। इसकी जिम्मेदारी इन तीनों को सौंपी गयी। तीनों सावधानी से इस अभियान की तैयारी करने लगे।
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इन दिनों बंगाल राज्य का मुख्यालय जिस भवन में हैं, कर्नल सिम्पसन का कार्यालय कोलकाता की उसी ‘राइटर्स बिल्डिंग’ में था। आठ दिसम्बर, 1930 को तीनों अंग्रेजी वेशभूषा पहन कर वहां जा पहुंचे। उनके प्रभावी व्यक्तित्व के कारण मुख्य द्वार पर उन्हें किसी ने नहीं रोका। सिम्पसन के कमरे के बाहर एक चपरासी बैठा था। उसने तीनों से कहा कि वे एक पर्चे पर अपना नाम और काम लिख दें, तो वह उस पर्चे को साहब तक पहुंचा देगा। पर उन्हें इतना अवकाश कहां था ? वे चपरासी को धक्का देकर अंदर घुस गये। इस धक्कामुक्की और शोर से सिम्पसन चौंक गया; पर जब तक वह सावधान होता, इन तीनों ने उसके शरीर में छह गोलियां घुसा दीं। वह तुरंत ही धरती पर लुढ़क गया। तीनों अपना काम पूरा कर वापस लौट चले। इस गोलीबारी और शोर से पूरे भवन में हड़कम्प मच गया। वहां के सुरक्षाकर्मी भागते हुए तीनों क्रांतिवीरों के पीछे लग गये। कुछ ही देर में पुलिस भी आ गयी। तीनों गोली चलाते हुए बाहर भागने का प्रयास करने लगे। भागते हुए तीनों एक बरामदे में पहुंच गये, जो दूसरी ओर से बंद था। यह देखकर वे बरामदे के अंतिम कमरे में घुस गये और उसे अंदर से बंद कर लिया।
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जो लोग उस कमरे में काम कर रहे थे, वे डर कर बाहर आ गये और उन्होंने बाहर से कमरे की कुंडी लगा दी। कमरे को पुलिस ने घेर लिया। दोनों ओर से गोली चलती रही; पर फिर अंदर से गोलियां आनी बंद हो गयीं। पुलिस से खिड़की से झांककर कर देखा, तो तीनों मित्र धरती पर लुढ़के हुए थे। वस्तुतः तीनों ने अभियान पर जाने से पहले ही यह निश्चय कर लिया था कि भले ही आत्मघात करना पड़े; पर वे पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इस संघर्ष में दिनेश गुप्त पुलिस की गोली से बुरी तरह घायल हुआ था। सुधीर ने अपनी ही पिस्तौल से गोली मार कर आत्मघात कर लिया। विनय ने भी अपनी दोनों कनपटियों पर गोली मार ली थी; पर उसकी मृत्यु नहीं हुई।
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पुलिस ने तीनों को अपने कब्जे में ले लिया। दिनेश और विनय को अस्पताल भेजा गया। विनय ने दवाई खाना स्वीकार नहीं किया। अतः उसकी हालत बहुत बिगड़ गयी और 13 दिसम्बर को उसका प्राणांत हो गया। दिनेश गुप्त का ऑपरेशन कर गोली निकाल दी गयी और फिर उसे जेल भेज दिया गया। मुकदमे के बाद सात जुलाई, 1931 को उसे फांसी दे दी गयी। इस प्रकार तीनों मित्रों ने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए अमर बलिदानियों की सूची में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा लिया। फांसी के 20 दिन बाद कन्हाई लाल भट्टाचार्य ने उस जज को न्यायालय में ही गोली से उड़ा दिया, जिसने दिनेश गुप्त को फांसी की सजा दी थी।
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