प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल खबर सच है संवाददाता
सुशीला देवी का जन्म 25 अगस्त, 1914 को जम्मू-कश्मीर राज्य के दीवान बद्रीनाथ जी एवं श्रीमती विद्यावती जी के घर में ज्येष्ठ पुत्री के रूप में हुआ था। उन्हें अपने पिताजी से प्रशासनिक क्षमता तथा माताजी से धर्मप्रेम विरासत में मिला था। जब वे कानपुर के प्रख्यात समाजसेवी रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह की पुत्रवधू बन कर आयीं, तो ससुराल पक्ष से उन्हें शिक्षा संस्थाओं के प्रति प्रेम भी प्राप्त हुआ। इन गुणों को विकसित करते हुए उन्होंने समाजसेवा के माध्यम से अपार प्रतिष्ठा अर्जित की।
सुशीला जी के पूर्वज ऐमनाबाद (वर्तमान पाकिस्तान) के निवासी थे। पंजाब व जम्मू-कश्मीर में इनकी विशाल जागीरें थीं। इनके परदादा श्री कृपाराम ने जम्मू के राजा गुलाबसिंह को कश्मीर राज्य खरीदने में सहयोग दिया था। बद्रीनाथ जी राजा हरिसिंह के निजी सचिव भी थे। इस परिवार की ओर से कई शिक्षा संस्थाओं, अनाथाश्रम, विधवाश्रम व धर्मशालाओं आदि का संचालन किया जाता था। विभाजन के बाद उनकी अथाह सम्पत्ति पाकिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर में रह गयी; पर सुशीला जी ने कभी उसकी चर्चा नहीं की।1935 में सुशीला जी का विवाह बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह से हुआ, जो आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत संघचालक बने। इस प्रकार उनके जीवन में धर्म के साथ समाज व संगठन प्रेम का भी समावेश हुआ। कानपुर में सुशीला जी को सब ‘रानी साहिबा’ कहने लगे; पर यह सम्बोधन धीरे-धीरे ‘बूजी’ में बदल गया।
विवाह के बाद भी सुशीला जी प्रायः कश्मीर जाती रहती थीं, चूंकि उनके पिता जी का देहांत 1919 में ही हो चुका था। अतः उनकी सम्पत्ति की देखभाल उन्हें ही करनी पड़ती थी। विभाजन के समय और फिर 1965 में जब श्रीनगर में संकट के बादल छा गये, तो सबने उन्हें तुरंत श्रीनगर छोड़ने को कहा; पर वे अपने सब कर्मचारियों के साथ ही जम्मू गयीं। धीरे-धीरे बूजी ने स्वयं को कानपुर के गरम मौसम व घरेलू वातावरण के अनुरूप ढाल लिया। बैरिस्टर साहब जब संघ में सक्रिय हुए, तो उनके घर वरिष्ठ कार्यकर्ता प्रायः आने लगे। बूजी स्वयं रुचि लेकर सबकी आवभगत करती थीं। इस प्रकार वे भी संघ से एकरूप हो गयीं। उन्होंने आग्रहपूर्वक अपने एक पुत्र को तीन वर्ष के लिए प्रचारक भी बनाया। जब भी उनके घर में कोई शुभ कार्य होता, वे हजारों निर्धनों को भोजन कराती थीं।
1947 में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से भेंट के बाद राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय किया। इसमें सरदार पटेल के साथ ही पर्दे के पीछे बूजी की भी बड़ी भूमिका थी। 1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय बैरिस्टर साहब जेल चले गये। इस दौरान एक साध्वी की तरह बूजी भी साधारण भोजन करते हुए भूमि पर ही सोयीं। दीनदयाल जी से बूजी को बहुत प्रेम था। वे उनमें अपने भाई की छवि देखती थीं। उनकी हत्या के बाद बूजी ने श्रद्धांजलि सभा में ही संकल्प लिया कि एक दीनदयाल चला गया, तो क्या हुआ, मैं ऐसी संस्था बनाऊंगी, जिससे सैकड़ों दीनदयाल निकलेंगे।
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इस प्रकार कानपुर में दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय की स्थापना हुई। यों तो इस परिवार द्वारा कानपुर में अनेक विद्यालय चलाये जाते हैं; पर बूजी इस विद्यालय की विशेष देखरेख करती थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने सब पूर्वजों के नाम से भी शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया। अपनी पारिवारिक संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य सामाजिक संस्थाओं को भी वे सहयोग करती थीं। अनंतनाग के पास नागदंडी आश्रम के स्वामी अशोकानंद उनके आध्यात्मिक गुरु थे। बूजी द्वारा किया गया उनके प्रवचनों का संकलन ‘तत्व चिंतन के कुछ क्षण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार जीवन भर सक्रिय रहते हुए दो मई, 1973 को शिक्षानुरागी श्रीमती सुशीला देवी का देहांत हुआ।
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