प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल खबर सच है संवाददाता
पंजाब भारत की खड्गधारी भुजा है। पंजाबियों ने सर्वत्र अपनी योग्यता और पौरुष का लोहा मनवाया है परंतु एक समय ऐसा भी आया जब कुछ सिख समूह अलग खालिस्तान का राग गाने लगे इस माहौल को संभालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन कर इसकी जिम्मेदारी वरिष्ठ प्रचारक श्री चिरंजीव सिंह को दी। चिरंजीव जी का जन्म 1 अक्तूबर, 1930 (आश्विन शु. 9) को पटियाला में एक किसान श्री हरकरण दास (तरलोचन सिंह) तथा श्रीमती द्वारकी देवी (जोगेन्दर कौर) के घर में हुआ मां सरकारी विद्यालय में पढ़ाती थीं। उनसे पहले दो भाई और भी थे पर वे बचे नहीं मंदिर और गुरुद्वारों में पूजा के बाद जन्मे इस बालक का नाम मां ने चिरंजीव रखा। 1952 में उन्होंने राजकीय विद्यालय पटियाला से बी.ए. किया। वे बचपन से ही सब धर्म और पंथों के संतों के पास बैठते थे। 1944 में कक्षा सात में पढ़ते समय वे अपने मित्र रवि के साथ पहली बार शाखा गये वहां के खेल अनुशासन प्रार्थना और नाम के साथ ‘जी’ लगाने से वे बहुत प्रभावित हुए शाखा में वे अकेले सिख थे। 1946 में वे प्राथमिक वर्ग और फिर 1947,1950 और 1952 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्गों में गये। 1946 में गीता विद्यालय कुरुक्षेत्र की स्थापना पर सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषण ने उनके मन पर अमिट छाप छोड़ी। गला अच्छा होने के कारण वे गीत कविता आदि खूब बोलते थे। श्री गुरुजी को ये सब बहुत अच्छा लगता था। अतः उनका प्रेम चिरंजीव जी को खूब मिला।
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1948 के प्रतिबंध काल में वे सत्याग्रह कर दो मास जेल में रहे। बी.ए. के बाद वे अध्यापक बनना चाहते थे पर विभाग प्रचारक बाबू श्रीचंद जी के आग्रह पर 1953 में वे प्रचारक बन गये वे मलेर कोटला, संगरूर पटियाला रोपड़ लुधियाना में तहसील जिला विभाग व सह संभाग प्रचारक रहे। लुधियाना 21 वर्ष तक उनका केन्द्र रहा संघ शिक्षा वर्ग में वे 20 वर्ष शिक्षक और चार बार मुख्य शिक्षक रहे। 1984 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद पंजाब का संगठन मंत्री बनाया गया। इस दायित्व पर वे 1990 तक रहे। इससे पूर्व ‘पंजाब कल्याण फोरम’ बनाकर सभी पंजाबियों में प्रेम बनाये रखने के प्रयास किये जा रहे थे। 1982 में अमृतसर में एक धर्म सम्मेलन भी हुआ। 1987 में स्वामी वामदेव जी व स्वामी सत्यमित्रानंद जी के नेतृत्व में 600 संतों ने हरिद्वार से अमृतसर तक यात्रा की और अकाल तख्त के जत्थेदार दर्शन सिंह जी से मिलकर एकता का संदेश गुंजाया। अक्तूबर 1986 में दिल्ली में एक बैठक हुई उसमें गहन चिंतन के बाद गुरु नानकदेव जी के प्रकाश पर्व (24 नवम्बर, 1986) पर अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन हो गया सरदार शमशेर सिंह गिल इसके अध्यक्ष तथा चिरंजीव जी महासचिव बनाये गये। 1990 में शमशेर जी के निधन के बाद चिरंजीव जी इसके अध्यक्ष बने। चिरंजीव जी ने संगत के काम के लिए देश के साथ ही इंग्लैड, कनाडा, जर्मनी, अमरीका आदि में प्रवास किया। उनके कार्यक्रम में हिन्दू और सिख दोनों आते थे। उन्होंने दोनों को एक परिवार का अंग बताते हुए कहा कि खालिस्तान आंदोलन को अधिक समर्थन नहीं है, पर भयवश लोग चुप रहते हैं। 1999 में ‘खालसा सिरजना यात्रा’ पटना में सम्पन्न हुई। वर्ष 2000 में न्यूयार्क के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में वे 108 संतों के साथ गये जिनमें आनंदपुर साहिब के जत्थेदार भी थे ऐसे कार्यक्रमों से संगत का काम विश्व भर में फैल गया। इसे वैचारिक आधार देने में पांचवे सरसंघचालक सुदर्शन जी का भी बड़ा योगदान रहा। वर्ष 2003 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया। इन दिनों वे पहाड़गंज, दिल्ली में संगत के नवनिर्मित कार्यालय में रहते हैं।
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