पहले हरदा का रणजीत के दुर्ग रामनगर में चुनावी ताल ठोकना फिर चौकाने वाले अंदाज में बागियों के गल बाहें डालते हुए पूर्व महिला प्रत्याशी की जगह स्वयं लालकुआं के रण में कूदना, आमजन को बेशक सामान्य सी बात लगती हो, लेकिन हकीकत में यह एक सोची समझी राजनीती का हिस्सा रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से हरदा का रणजीत से मोह भंग होने के चलते ही हरदा अपने भांजे दीवान बिष्ट के विरुद्ध रणजीत के दुर्ग रामनगर से नाटकीय ताल ठोकने चलें और रणजीत का रामनगर से पत्ता साफ कराने के साथ ही नैनीताल जिले से एक मात्र महिला प्रत्याशी को किक आउट करते हुए कांग्रेस की शीर्ष नेतृत्व प्रियंका गांधी के “लड़की हूँ लड़ सकती हूं” के नारे की हवा निकालते हुए लालकुआं के सूबेदार बन बैठे। दुर्भाग्य यह कि इस सीट पर महिला प्रत्याशी को टिकट मिलते ही पार्टी विद्रोहीयों का ड्रामेटिक रोल अदा करने वाले सभी एक जुट होते हुए हरदा के पिछलग्गू बन कांग्रेस के स्वामिभक्त अनुशासित सिपाही बन गए।
हालांकि राजनीती तो नाम ही मौकापरस्तों का है और यहां उसूलों के विरुद्ध किसी को भी झुकाते हुए उठना सामान्य सी बात है। कहते है…
“जीत की और न हार की ज़िद हैं
दिल को शायद करार की जिद है“
बावजूद प्रत्याशी अपना सब कुछ दांव में लगाते हुए उम्मीद करता है कि नेतृत्व के अनुकूल चलते हुए शायद उसका भविष्य निर्धारित होगा और यह सोचने लायक तक नहीं रहते कि यह राजनीती है यहां पीठ पीछे ही सारी रणनिती तय होती है। अंततोगत्वा जब औंधे मुंह गिरते है तो समझ आता है कि …खेला होबे
बहरहाल राजनीतिक मगरमच्छ के मुंह में फंसे खिसियाये प्रत्याशी को तो उम्मीद से परे बस यही कहते बनता की…
“वो इस कमाल से खेला था इश्क की बाजी
मै अपनी फतह समझता था मात होने तक“