किसी शायर ने क्या खूब कहा है…
“झूठ बोलते थे कितना, फिर भी सच्चे थे हम..
ये उन दिनों की बात है,, जब बच्चे थे हम..”
जिसे आज राजनीती की पृष्ठभूमि में बखूबी से देखने को मिल रहा है। मै शपथ लेता हूँ कि जनता की सेवा-सहायता के लिए स्वयं को समर्पित करते हुए अपना सम्पूर्ण समय राष्ट्र हित, देश हित व समाज हित में दूंगा, लेकिन वादे, कर्म और धर्म आज स्वयं के स्वार्थ हेतू पद-प्रतिष्ठा और कुर्सी तक सिमट गए। बेशर्म हो गए इतने की भीख मांग रहें, मेरी खाली झोली में भी विधायिका का टिकट डाल दो। ए मेरे कांग्रेसी स्वामी सॉरी गलती हो, भाजपा के मालिक मै कर्म वचन से सदैव आपका हूँ, झाड़ू वाले स्वामी जब तक जियूंगा झाड़ू साथ रखूंगा, साइकिल वाले स्वामी मै साइकिल चलाने में परफेक्ट हूं, हाथी मेरा साथी, अरे भाई कोई माई बाप तो मेरी खाली झोली में अपना झंडा गाड़ दो।
महत्वाकांक्षा के कारण आज ब्यक्ति समाज हित ही नहीं स्वयं की वैल्यू भी दांव पर लगा चुका है, चाहे उसे अपने विवेक को आंख मूंद कर ठोकर एवं दुत्कार खाकर ही क्यों न गिरना पड़े। मानवता के ऊंचे सिद्दांतों की हत्या भी ऐसे लोगों के लिए सामान्य सी बात बन चुकी है। इन्हें तो डर लगने लगा है कि विधायक नहीं बनेंगे तो मर जायेंगे, क्योंकि अराजकता, विद्रोह, काला धन अथवा पाप पुण्य का लेखा-जोखा जो साथ चिपका हुआ है।
बहरहाल वक्त आ चुका है कि हम समझदार बनें और सम्पूर्ण विवेक के साथ अपना ही नहीं वरन अपने प्रदेश के सर्वांगीण एवं शैक्षणिक विकास के लिए थाली के बैगन नहीं वरन जुझारू एवं सामाजिक ब्यक्ति भले ही वह सामान्य अथवा धनबल से कमजोर ही क्यों न हो, को चुनते हुए देश एवं प्रदेश हित में योगदान करें।