प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल खबर सच है संवाददाता
अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय भले ही कांग्रेसी नेता स्वयं लेते हों; परंतु वस्तुतः इसका श्रेय उन क्रान्तिकारी युवकों को है, जो अपनी जान हथेली पर लेकर घूमते रहते थे। अनाथ बन्धु एवं मृगेन्द्र दत्त यह ऐसे दो नाम है जो आज बहुत खोजने के बाद भी नहीं मिलते। योद्धाओं जैसी वीरगति पाने वाले अनाथ बंधू एवं मृगेंद्र दत्त के नाम को चाटुकार इतिहासकारों ने इतिहास से मिटाने की हर संभव कोशिश की, क्योँकि इन्होने चरखे को छोड़ अस्त्रों को अपना हथियार बना कर अंग्रेजों की जड़ों को हिला कर रख दिया था। यह कितनी शर्म की बात है कि बेहद ही कम उम्र में बड़े अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारने वाले जिन वीरों का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए थे, जन जन तक पहुँचाया जाना चाहिए था, जिनका समाज में पूज्यनीय स्थान होना चाहिए था, भारत की तथाकथित सेकुलर नीति और खुद से खुद के लिए गढ़ी गई सत्ता नीति के चलते इतिहासकारों की लिखी लाइनों में इन्हें जगह देने लायक भी नहीं समझा गया।
उन दिनों बंगाल के मिदनापुर जिले में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जोरों पर थीं। इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने वहाँ जेम्स पेड्डी को जिलाधिकारी बनाकर भेजा। यह बहुत क्रूर अधिकारी था। छोटी सी बात पर 10-12 साल की सजा दे देता था। क्रान्तिकारियों ने शासन को चेतावनी दी कि वे इसके बदले किसी भारतीय को यहाँ भेजें; पर शासन तो बहरा था। अतः एक दिन जेम्स पेड्डी को गोली से उड़ा दिया गया। अंग्रेज इससे बौखला गये। अब उन्होंने पेड्डी से भी अधिक कठोर राबर्ट डगलस को भेजा। एक दिन जब वह अपने कार्यालय में बैठा फाइलें देख रहा था, तो न जाने कहाँ से दो युवक आये और उसे गोली मार दी। वह वहीं ढेर हो गया। दोनों में से एक युवक तो भाग गया; पर दूसरा प्रद्योत कुमार पकड़ा गया। शासन ने उसे फाँसी दे दी।
दो जिलाधिकारियों की हत्या के बाद भी अंग्रेजों की आँख नहीं खुली। अबकी बार उन्होंने बी.ई.जे.बर्ग को भेजा। बर्ग सदा दो अंगरक्षकों के साथ चलता था। इधर क्रान्तिवीरों ने भी ठान लिया था कि इस जिले में किसी अंग्रेज जिलाधिकारी को नहीं रहने देंगे। बर्ग फुटबाल का शौकीन था और टाउन क्लब की ओर से खेलता था। 2 सितम्बर, 1933 को टाउन क्लब और मौहम्मदन स्पोर्टिंग के बीच मुकाबला था। खेल शुरू होने से कुछ देर पहले बर्ग आया और अभ्यास में शामिल हो गया। अभी बर्ग ने शरीर गरम करने के कलए फुटब१ल में दो-चार किक ही मारी थी कि उसके सामने दो खिलाड़ी, अनाथ बन्धु पांजा और मृगेन्द्र कुमार दत्त आकर खड़े हो गये। दोनों ने जेब में से पिस्तौल निकालकर बर्ग पर खाली कर दीं। वह हाय कहकर धरती पर गिर पड़ा और वहीं मर गया।
यह देखकर बर्ग के अंगरक्षक इन पर गोलियाँ बरसाने लगे। इनकी पिस्तौल तो खाली हो चुकी थी, अतः जान बचाने के लिए दोनों दौड़ने लगे; पर अंगरक्षकों के पास अच्छे शस्त्र थे। दोनों मित्र गोली खाकर गिर पड़े। अनाथ बन्धु ने तो वहीं प्राण त्याग दिये। मृगेन्द्र को पकड़ कर अस्पताल ले जाया गया। अत्यधिक खून निकल जाने के कारण अगले दिन वह भी चल बसा। इस घटना के बाद पुलिस ने मैदान को घेर लिया। हर खिलाड़ी की तलाशी ली गयी। निर्मल जीवन घोष, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय के पास भी भरी हुई पिस्तौलें मिलीं। ये तीनों भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य थे। यदि किसी कारण से अनाथ बन्धु और मृगेन्द्र को सफलता न मिलती, तो इन्हें बर्ग का वध करना था। पुलिस ने इन तीनों को पकड़ लिया और मुकदमा चलाकर मिदनापुर के केन्द्रीय कारागार में फाँसी पर चढ़ा दिया।
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तीन जिलाधिकारियों की हत्या के बाद अंग्रेजों ने निर्णय किया कि अब कोई भारतीय अधिकारी ही मिदनापुर भेजा जाये। अंग्रेज अधिकारियों के मन में भी भय समा गया था। कोई वहाँ जाने को तैयार नहीं हो रहा था। इस प्रकार क्रान्तिकारी युवकों ने अपने बलिदान से अंग्रेज शासन को झुका दिया। आज उन वीरों के बलिदान दिवस पर देश की जनता से एक प्रश्न पूछा जाना आवश्यक है कि क्या आज़ादी के स्वर्ण ग्रन्थ में इनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना नहीं चाहिए ? क्या अनाथ बन्धु एवं मृगेन्द्र दत्त सहित निर्मल जीवन घोष, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय जैसे वीर योद्धाओं की जीवनियां विद्यालयों में नहीं पढाई जानी चाहिए ?
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