मनोज कुमार पांडे
उत्तराखंड में लिंगदोह कमेटी की सिफारिशो के बावजूद छात्र संघ चुनाव गुंडागर्दी का अखाड़ा बन कर रह गया है। जहां लगातार हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं। चुनाव के दौरान कभी छात्र गुट कॉलेज परिसर पर भीड़ जाते है तो कभी कॉलेज परिसर से बाहर सरफुटब्बल की नौमत आ जाती है। इतना ही नहीं राजनीतिक दलों की छात्र चुनावों में दखल अंदाजी से छात्र चुनाव हत्या, अपहरण एवं कभी न भूलने वाली रंजिश में परिवर्तित हो गए है। जिसमें कॉलेज एवं विश्वविद्यालय प्रशासन महज मुकदर्शक तो सारी की सारी जिम्मेदारी पुलिस अथवा प्रशासन की ही रह गईं है और सत्तापक्ष के आगे नतमस्तक प्रशासन भी सिर्फ लाठीचार्ज और भीड़ को खदेड़ने तक ही सिमित रह गया है।
ताजा मामला रुद्रपुर के सरदार भगत सिंह डिग्री कॉलेज का है, जहां नामांकन प्रक्रिया के दौरान दो छात्र गुटों के बीच कहासुनी के बाद माहौल अचानक बिगड़ गया।देखते ही देखते दोनों पक्षों में हाथापाई शुरू हो गई और इसी दौरान एक युवक ने तमंचे से फायरिंग कर दी। गोली चलने की आवाज से कॉलेज परिसर में भगदड़ मच गई और छात्र इधर-उधर भागने लगे, तो इससे पूर्व एमबीपीजी कॉलेज हल्द्वानी में भी दो गुटों के बीच सरफुटब्बल हो गईं, जिस पर पुलिस को लाठी भांज एकत्रित छात्रों को खदेड़ना पड़ा। इससे पहले भी रुद्रपुर के बगवाड़ा क्षेत्र में छात्र संघ चुनाव से जुड़े एक विवाद में फायरिंग की घटना हो चुकी है, जिसमें एक युवक घायल हुआ था।
यह महज आज ही की बात नहीं बल्कि तिथि पूर्व सिर्फ चुनाव होने की घोषणा से ही शुरू होने वाला द्वन्द है, जिसमें छात्र नेता तो जीते या हारे पर किसी न किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित होकर अपना राजनयिक भविष्य तय कर लेगा, लेकिन उसके पीछे बेवजह खुंदस पाल रहें छात्र का भविष्य दांव पर लग रहा है।
छात्रों को राजनीती में होना चाहिए पर उनके आगे चाहिए वह दिशा जो उनके शिक्षको, सामाजिक नेतृत्व, समाजसेवियों, साहित्यकारों, और अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक हिस्सों से प्राप्त होना चाहिए, तभी छात्र राजनीती प्रांतीय-राष्ट्रीय राजनीती से जुडी होकर एक सदिश भूमिका निभा सकती है। ठीक उसी तरह जैसे गाँधी जी के आन्दोलनों में भी छात्र अपने अपने स्थान से शामिल थे और जय प्रकाश जी द्वारा दी हुई सदिश भूमिका को भी छात्र राजनीती ने अपने स्तर से मजबूत किया था। शिक्षित राजनीती का एक वो भी दौर था जब सन १९५१ में २६ वर्षीय एक युवक ने छात्र राजनीती में अपना योगदान देना प्रारम्भ किया था। सन १९९९ में वह युवक अटल बिहारी बाजपेयी भारत का प्रधानमंत्री बना। लेकिन गुण्डत्व एवं दिशा विहीन होकर नहीं, वरन उचित सोच एवं सबको साथ लेकर क्रन्तिकारी विचार लेकर।
बहरहाल छात्र राजनीती और उस पर राजनीतिक दलों की दखल अंदाजी से वास्तविक छात्रों के भविष्य पर हो रहें विपरीत परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है, इसका न तो स्वयं किसी को संज्ञान और न ही जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार। बस सिर्फ तमाशाई बन कर हो रही उद्दण्डता को देखने भर का ही अपना कर्तब्य समझ बैठे है।




