खबर सच है संवाददाता
रामनगर। प्रेमावतार, युगदृष्टा, श्री हरि कृपा पीठाधीश्वर व विश्व विख्यात संत श्री श्री 1008 श्री हरि चैतन्य पुरी जी महाराज ने आज यहाँ श्री हरि कृपा आश्रम में उपस्थित विशाल भक्त समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि परमात्मा एकही है।उनके नाम उपासना पद्धतियां विभिन्न हो सकती हैं। हम सभी एक ही सर्वशक्तिमान की संतान हैं जो जीव मात्र का परम सुह्रदय हितैषी है। परमात्मा किसी से भी दूर नहीं है, लेकिन स्वार्थ के दलदल में फंसे इंसान की गति ऐसी है कि वह अपने भीतर स्थित परमात्मा को नहीं पहचान पा रहा है। सत्य को पहचानना,धर्म को पहचानना,दया को अपनाना, शांति मार्ग का चयन करना व क्षमादान में निपुणता ही परमात्मा का सत्य रूप है। सच्चा सुख आनंद व शांति एकमात्र परमात्मा व अध्यात्म की शरण में ही है।परमात्मा से प्रेम, समाज की सेवा व स्वयं की खोज करें। जो प्रभु समर्पित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं उनकी हर प्रकार से देखभाल व रक्षा स्वयं प्रभु करते हैं। लौकिक उन्नति बुरी नहीं, लेकिन प्रभु से विमुख उन्नति अवनति के समान ही है।
उन्होंने कहा कि मत, पंथ व संप्रदाय विभिन्न हो सकते हैं लेकिन धर्म एक ही है जो हमें राष्ट्रीयता, नैतिकता, मानवता व पारसस्परिक सौहार्द का संदेश देता है। जो आपस में लड़ना सिखाएं या हिंसा का संदेश दे वो धर्म नहीं हो सकता। धर्म जोड़ता है तोड़ता नहीं। लेकिन दुर्भाग्यवश आज लोग धर्म के नाम पर तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, व तोड़ रहे हैं जो शर्मनाक है। धर्म विज्ञान सम्मत है ढकोसला नहीं। धर्म व विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं कहना भी अतिश्योक्ति नहीं।धर्म से विज्ञान दूर होने पर ही ढोंग, पाखंड, अन्धविश्वास, रूढिवादिताओं को बढ़ावा मिलता है।धर्म विहीन विज्ञान भी विकास का नहीं विनाश का कारण बनेगा। आज धर्म के अनुष्ठान बहुत बढ़ रहे हैं लेकिन आचरण अपेक्षाकृत उतना नहीं बढ़ रहा , जबकि धर्म मात्र अनुष्ठान का नहीं अपितु आचरण का विषय है। जीवन का अभिन्न अंग बन जाए धर्म। हर क्रियाकलाप में जुड़ जाए धर्म तो समाज में व्याप्त बुराइयाँ, विकृतियाँ व विकार हमारे जीवन में प्रवेश नहीं कर पाएंगे।
उन्होंने कहा कि प्यार बहुत ही छोटा सा शब्द है अगर सच्चा हो तो सारी दुनिया का मालिक भी इससे वश में हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। प्रेम ही ईश्वर है, ईश्वर ही प्रेम है। बशर्ते वह प्रेम विशुद्ध हो, निष्काम हो, निस्वार्थ हो, निष्कपट हों ऐसा विशुद्ध, निस्स्वार्थ, निष्कपट प्रेम परमात्मा का ही स्वरूप है जब यह स्वभाविक हमारे मन में उत्पन्न होतो लगता है कि सामने वाला कौन है कही ये साक्षात परमात्मा तो नहीं है। लेकिन स्थिर नहीं रहती है बुद्धि, प्रेम, आस्था विश्वास। ये परमात्मा नहीं है तो परमात्मा का कोई निकट जन है ये सदियों से लगता आया है क्योंकि अंत में स्वाभाविक प्रेम परमात्मा या परमात्मा के निज जन के प्रति ही उत्पन्न हो सकता है।परंतु आज दुर्भाग्यवश इसी प्रेम का अभाव सर्वत्र दिखाई देता है, मूर्खतावश लोग वासनामय संबंधों को प्रेम कह देते हैं जो कि प्रेम का भी अपमान है।
उन्होंने कहा कि मानव मन को धर्म व अध्यात्म से ही नियंत्रित किया जा सकता है । इसलिए धर्म विहीन मनुष्य को पशु तुल्य कहा गया है ।आज लोगों के धर्म से भी विमुख होने के कारण ही मानवता की कमी भी दिखाई देने लगी है । हमें समाज को बदलने के लिए लोगों की दृष्टि बदलने की आवश्यकता है।किसी को सुधारने से पहले स्वयं को सुधारना चाहिए। उन्होंने कहा कि बदले की भावना से वैर, क्षमा से प्रेम बढ़ता है। क्षमा कायरों का नहीं वीरों का आभूषण है। यदि सतंता के मार्ग पर बढ़ना है तो अपने अन्दर क्षमा, करुणा, उदारता, कृपा आदि सद्गुणों को अपनाएं। जीवन मरण, हानि लाभ, सुख दुख के कर्ता धर्ता प्रभू ही हैं।प्रभु का नाम पाप धोने वाली गंगा, विष- वैर मिटाने वाला अमृत, दुर्जन को सज्जन बनाने वाली तंत्र, मोक्ष मिलने के मंत्र, भवसागर से पार उतारने वाली नौका व स्वर्ग जाने की सीढ़ी है। जो आंखें विषय वासना, सांसारिक मोहमाया में फँसी है उन्हें परमात्मा नहीं दिखाई देते तथा जब संसार नहीं दिखता तो प्रभू दिखते हैं। सन्तों, शास्त्रों व अवतारों को मात्र अपनी कमियां छुपाने की ढाल ही ना बनाएँ। उनसे प्रेरणाएं, शिक्षाएँ व उपदेश भी ग्रहण करके अपने जीवन में उतारकर जीवन को दैवत्व परिपूर्ण बनाए।विचारशील प्राणी कभी भी किसी भी हाल में धर्म व परमात्मा का साथ कदापि भी नहीं छोड़ता। यूँ भी धैर्य ,धर्म ,मित्र व नारी इन चारों की परीक्षा विपत्ति के समय होती है।कब कौनसी बुद्धि उजागर हो जाए कोई कुछ कह नहीं सकता, हाँ अच्छे संग से सुमति व बुरे संग से कुमति ही उत्पन्न होगी।
उन्होंने अपने ओजस्वी प्रवचनों में कहा कि संत, गुरु, शास्त्र या ग्रंथ इनके पास क्या है यह इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना यह कि श्रोता उनसे क्या ग्रहण करता है। बुद्धिमान वही कहलाता है जो व्यवहार करने से पूर्व विचार करता है। जबकि मूर्ख व्यक्ति व्यवहार के बाद विचार करता है उसे पश्चाताप, गिलानी व हास्य का पात्र बनना पड़ता है। अपने विवेक को कभी खोना नहीं चाहिए। स्व: सम्मान को कभी प्राप्ति का लक्ष्य नहीं बनाना चाहिए क्योंकि सम्मान को लक्ष्य बनाने पर यदि सम्मान नहीं मिला तो क्षुब्ध होना पड़ता है। विद्वान व्यक्ति अपनी संपूर्ण कामनाओं को संकुचित कर हर प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओं का परित्याग करके ही मनुष्य ब्रह्म भाव को प्राप्त करता है। सत्पुरुषों का आचरण व कार्य सदैव अनुकरणीय होता है।
उन्होंने कहा कि भूतकाल से प्रेरणा ले, हो चुकी गलतियों को सुधारें, भविष्य के लिए योजनाएं चाहे बनाए लेकिन वर्तमान में जीना सीख ले। सर्वाधिक महत्वपूर्ण समय वर्तमान ही है। वर्तमान का ही उत्तम से उत्तम सदुपयोग करें। वर्तमान को छोड़कर मात्र भूत व भविष्य का चिंतन मूर्खता है।
महाराज श्री के दर्शननार्थ व दिव्य प्रवचन सुनने के लिए हल्द्वानी, काशीपुर, रुद्रपुर, किच्छा, धामपुर, मुरादाबाद, बरेली, गढीनेगी, अल्मोड़ा, रानीखेत, नजीमाबाद, जसपुर, नैनीताल व दिल्ली आदि दूर दूर से लोग बड़ी संख्या में पहुंच रहे हैं।