“काकोरी काण्ड” जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा

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प्रस्तुति – नवीन चन्द्र पोखरियाल खबर सच है संवाददाता

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन इसके बारे में बहुत ज्यादा जिक्र सुनने को नहीं मिलता। इसकी वजह यह है कि इतिहासकारों ने काकोरी कांड को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे। 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी कांड का मुकदमा 10 महीने तक चला था जिसमें रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खां को फांसी की सजा हुई थी।

1922 में जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, उसी साल फरवरी में ‘चौरा-चौरी कांड’ हुआ। गोरखपुर जिले के चौरा-चौरी में भड़के हुए कुछ आंदोलकारियों ने एक थाने को घेरकर आग लगा दी थी जिसमें 22-23 पुलिसकर्मी जलकर मर गए थे। इस हिंसक घटना से दुखी होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था, जिससे पूरे देश में जबरदस्त निराशा का माहौल छा गया था। आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा जा सकता है, क्योंकि इसके बाद आम जनता अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी।

9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी। इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है। क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके। इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे। इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, ‘डकैत (क्रांतिकारी) खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे। उनकी संख्या 25 थी। यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे। पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयुक्त किए गए थे।’

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इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई। हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। अंग्रेजों की इस धरपकड़ से प्रांत में काफी हलचल मच गई। काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला (आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है)। इस पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ। 6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाईं। मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई। शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई। योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सजा हुई। विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई।

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काकोरी काण्ड में अंग्रेजों ने चन्द्र शेखर आजाद को बहुत ढूंढा। वे भेष बदल-बदल कर बहुत समय तक अंग्रेज़ों को धोखा देने में सफल होते रहे। अंततः 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों का सामना करते हुए वे अपनी ही गोली से शहीद हो गए।

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TAGS: "Kakori Kand"

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